हुक़्म मेरे आका !
हुक़्म मेरे आका !
मिला था चिराग़ एक, उसको घर लाया
तेल-बाती डाल कर, विधि से जलाया
जला नहीं बार-बार जब भी जलाया
सिर्फ ढेर सारा धुआं, इसने उठाया
देखी जो दिक्कत चिराग़ को उठाया
उलट-पलट देखा कुछ समझ में न आया
करके जुगाड़ सभी मैं थक गया था
फेंक उसे कोने में, झट सो गया था
सपने में जिन्न एक सामने खड़ा था
"हुक्म मेरे आका", कह समाने झुका था
बन्द था कमरा, वह कैसे घुसा था?
हैरान होकर मैं सोच ही रहा था,
पास एक आहट से डर सा गया था
देखा उधर तो चिराग़ हिल रहा था
खुशियों से बिल्कुल मैं पागल हुआ था
वाह ! मुझे जादुई चिराग़ मिल गया था
भागा उधर जब मैं झटका लगा था
अपनी पलंग से ही टकरा गया था
नींद खुल चुकी थी मैं घर में खड़ा था
मेज़ पर घड़ी में, अलार्म बज रहा था
टूट गया सपना, मैं दुःख से भरा था
नज़रों में अब भी वह जिन्न उड़ रहा था
मेरे दिमाग़ में वह जिन्न बस गया था।
