औरत एक शिल्पकला
औरत एक शिल्पकला
कभी गढ़ जाती हूँ शिल्प कला सी
जिन्दगी के शीश महलों पर,
कभी थिरक जाती हूँ शाश्त्रीय नृत्य सी
जीवन की संस्कृति के मंचों पर,
कभी उकेरी जाती हूँ कमूरों सी
जिन्दगी के तिवारों पर,
कभी रेखा सी खींच दी जाती हूँ
जिन्दगी के द्वारों पर ,
कभी झालर सी लटकती हूँ
गलियों और चौबरों पर ,
कभी मछली सी छटपटाती हूँ
जिन्दगी की चार दीवारों पर
कभी कठपुतली सी नाचती हूँ
हुकुमो के इशारों पर ,
कभी चकोर सी जागती हूँ
जमाने के सवाल जवाबों पर ,
कभी बंट जाती हूँ रिश्वत सी
जिन्दगी के काले धन्धों में ,
कभी चुक जाती हूँ नकदी सी
जिन्दगी की उधारी की किश्तों में ,
एक औरत तो ढल जाती है
गीली मिट्टी सी सांचों में ,
मर्द और औरत में फर्क नहीं आज
ये झूठी दलीले तो रह जाती है
सिर्फ अंकित अखबारों की खबरों में ।
