पाखंड पुजता
पाखंड पुजता


जान की कीमत नहीं है
कीमत है माल की
बीच चौराहों पर लगती
नुमाइशें बेईमानी की
झंडे गढ़ते झूठ के
और धज्जी उड़ती सत्य की
पाखंड पुजता समाज में
ईमान बिकता कौड़ियों के भाव में
धुँध छाई है अन्धविश्वास की
मर गई है चेतना
जय जय कार होती
हैवानों की
खाक हो गई नैतिकता
रौंध दी गई मानवता
तलवार लटकी अधर्म की
अर्थी उठती धर्म की
कहीं आतंक की ज्वाला भड़कती
कहीं दंगों की चिंगारियां
रक्त रंजित छींटों से
रँगती सूरत कुकर्म की
दफ़न हो गया न्याय
लालच की नींव में
हूंकार भरता अन्याय
अपराध की जीत में
कपट के ललाट पर लगी
तिलक रोली अहम की
जान की कीमत नहीं
कीमत है माल की
बीच चौराहों पर लगती
नुमाइशें बेईमानी की