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निशा परमार

Abstract Drama Tragedy

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निशा परमार

Abstract Drama Tragedy

मानवता आँखें मींचे

मानवता आँखें मींचे

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बहुत विचलित है मंन

आज की घटनाओं से

दिल दिमाग की यातनाऔँ से

ये कैसा अजीब सा घुटन भरा


मन को कचौडता रोंध्ता सा

पूरे जग का दुर्गन्ध भरा वातावरण है

कभी कोई नन्ही सी कली

किसी की हैवानियत की बली चढी


तो कभी किसी अबला की अस्मत बीच बाजर लुटी

कभी किसी गरीब की झोपड़ी

कर्ज की आग में राख हुई

तो कभी ख्वावों की दुनियाँ खाक हुई


तो कभी अमीरी की ऊँची इमारत के नीचे

मजदूर की सांसे दब गई

कभी रिश्वतखोरी के नीचे

न्याय की गुहार मर गई


कभी छतपटाता नीला पड्ता शरीर किसी

जीव का जहरीले पानी से

कभी बारुदों के ढेर से उठता धुआँ आतंक का

कभी झड़ता घुन जाति पांति


भेद भाव के दीमक लगे दिमाग से

कभी कंपकपाता नभ थल जल

वातावरण में आये विनाशकारी भूचाल से

कभी डरता छुपता सहंंमता मानव


अदृश्य प्राण प्यासे सूक्ष्म जीव से

कभी मंडराते जहरीले बादल से होती

बारिश धधकते तेजाब की

कभी गुर्राहट समुंदर मेँ उठते भन्नाते


तहस नहस करते तीव्र वेग के शैतान की

कभी किसी के घर से आती

दहेज की आग मे सुलगती

सांसो की कराहती चीन्खें


जगत में होते कुकृत्य को देखती

मानवता आँखें मीचे। 


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