ख्वाब पलते थे
ख्वाब पलते थे


जो ख्वाब पलते थे आँखों में
और सहलाती थी पलकें उनको
प्रेम और स्नेह से
और सुला लेती थी अपने गोद में
काली पुतली के चारों तरफ
बिखरती थी
ख्वावों की सतरंगी रश्मियाँ
आँखों के समुंदर के
किनारों की भीनी माटी में
सपने सींचते थे चेतन अंकुरण को
हथेली पर उगा लेता था
जीवन स्वयं का प्रतिंबंम
कंटीली पगडंडी पर रोपता
ह्रदय मखमली गुलों की कतार को
हसरतें लगाती नजर का काला टीका
स्वयं को निहार कर क्षितिज के दर्पण में
मंन के झंकृत तारों पर
थिरकती उमन्गों की मधुरिमा
हर लय हर ताल को पिरोता
जीवन का अतरंगी धागा
भावनाओं की तह की
सलवटों को मिटाती
ख्वाहिशों की हथेली
आज जब पीछे पलट कर देखती है
तो खुद को जीवन के छोरों की तुरपाई
करती नजर आती है
बार बार फिसल्ती है सुई वक्त
की सीलन से
बार बार जिन्दगी हौसलों से उसे
जकडती है
कि कहीं छोर छूट ना जाये!