मजदूर
मजदूर


मजदूरी की हथेली
गौर से देखती है
अपनी नियति की उस रेखा को
जो भूख की तपन से गुजरते हुये
भूख में ही दफन हो गई
बार बार पलटती है
कुन्डली के उन पन्नो को
जिनके नक्षत्र दोष का अन्त
आज तक नहीं हुआ
आज भी वो फावड़ा जो कि
घुर्राती भूख ने थमाया था
बचपन के हाथों में
खोद रहा है
कोयले की खान को
ढूढता हुआ दो वक्त की रोटी
और गरीबी की सुरंग का
अन्तिम छोर
जो कोसों दूर है।
और पसीना निचोड़ रही है
मजबूरी के सूत से बनी
कंकाल देह के
काँधे पर पड़ी साफी
और जम रही है
काली रज
खाक होते जीवन की
धोक्नी से फेफड़ों पर
और खांस रहा है बुढापा
जरजर झोंपडी में पडी
टूटे पाये की चारपाई पर
इसी उधेड बुन में
कि चंद सिक्कों को
कहाँ खर्च करुँ
दवा पर
या भूख पर।