बेबस गठरी
बेबस गठरी


नन्ही सी जान के सिर पर
रखी मैली कुचली
जीवन के बोझ को ढोती
बेबस सी गठरी
जिसका छोर बंधा है
जरजर जिन्दगी की डोरी से
गरीबी की मैड पर उगती
काँटों की बारी में उलझकर
जीवन की उधडी पोशाक को छुपाते
सुराख लिये पैवंद
सुना रहे थे कुछ किस्से
उन बीती घावों सी रिसती रातों के
जिनमें जिन्दगी का कसीदा उधेडा था
कभी भूख की लपट में तप्त सुई ने
तो कभी धजीरें फाड़ी थी
कर्ज में डूबे हाथों ने
और नंगे पैर जिसकी
दरारों से झांक रहे थे
नियति की बेबसी के मुखौटे पहिने
कुछ मासूम से दर्द
और आँखो में बिलबिलाती
रोटी कपडा मकान की दहलीज पर
सिर पटकती
जीने की गुहार लगाती
अधकुचली सी मिन्नतें
भीख का कटोरा लिये भटकती सांसें
स्वार्थ की खारी धारा के कटाव से
बने भी शक बीहडडों में
जहाँ अमीरी भूखी भेड़िये सी
झपटकर पड़ती है
दाँत गढ़ाती अपने अहम के
और निशान छोड़ जाती है
अमानवीयता के।