STORYMIRROR

निशा परमार

Abstract Drama Tragedy

4.3  

निशा परमार

Abstract Drama Tragedy

बेबस गठरी

बेबस गठरी

1 min
58


नन्ही सी जान के सिर पर 

रखी मैली कुचली 

जीवन के बोझ को ढोती

बेबस सी गठरी 


जिसका छोर बंधा है 

जरजर जिन्दगी की डोरी से 

गरीबी की मैड पर उगती 

काँटों की बारी में उलझकर 

जीवन की उधडी पोशाक को छुपाते 

सुराख लिये पैवंद 


सुना रहे थे कुछ किस्से 

उन बीती घावों सी रिसती रातों के

जिनमें जिन्दगी का कसीदा उधेडा था 

कभी भूख की लपट में तप्त सुई ने 

तो कभी धजीरें फाड़ी थी 


कर्ज में डूबे हाथों ने

और नंगे पैर जिसकी 

दरारों से झांक रहे थे 

नियति की बेबसी के मुखौटे पहिने 

कुछ मासूम से दर्द 


और आँखो में बिलबिलाती 

रोटी कपडा मकान की दहलीज पर 

सिर पटकती

जीने की गुहार लगाती 


अधकुचली सी मिन्नतें 

भीख का कटोरा लिये भटकती सांसें 

स्वार्थ की खारी धारा के कटाव से 

बने भी शक बीहडडों में 

जहाँ अमीरी भूखी भेड़िये सी 


झपटकर पड़ती है 

दाँत गढ़ाती अपने अहम के

और निशान छोड़ जाती है 

अमानवीयता के।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract