एक टुकड़ा
एक टुकड़ा
चाँद
का, एक टुकड़ा
रात की खिड़की से ,
दबे पाँव
उतरा है मेरे हृदय आंगन में,
वही टुकड़ा
मेरी कलम की रोशनी बन,
जिंदगी के सफ़हों
पर, उतरने को मचलता है
सोचती हूँ
भोर होने पर,
वह फिर
सूरज से डरकर,
लौट जाने की जिद्द करेगा
इसलिए
मैंने भी कह दिया,
मुझे
तुम्हारा यूं, टुकड़ा टुकड़ा
वजूद नहीं चाहिए
साहित्य जगत में,
अधूरा
कुछ नहीं होता
यहां , वही श्रद्धेय है
जो पूर्ण है
तुम्हें,
पूर्णमासी का चाँद बनकर
मेरी कलम में उतरना होगा,
अन्यथा,
तुम्हें, तुम्हारा अम्बर मुबारक
मुझे मेरी वसुंधरा।
