स्वप्न और प्रेम
स्वप्न और प्रेम
कल रात मैने सपना था देखा,
क्या देखा?
देखा एक अल्हड़ युवती को,
लज्जा फ़ूल खिले थे उसपर
और इतराए से भँवरे भी
कर रहे थे अभिनंदन उसको।।
और क्या देखा?
हाव भाव में चन्द्रमुखी वो,
बह जाये रूप सागर में
जो भी देख ले उसको।।
और क्या देखा?
देखा उनमें एक चंचल भंवरा
जो महक रहा था उसके आगे
कभी यहां तो कभी वहाँ।
इतराये हर्षाये भागे।।
देख कटि देह उसकी
बैठ गया प्रेमरागी उधर।।
मन मे लिए आकुलता वो,
कहीं न उसको चुभन लगें।।
मेरी ये पाँवो की चहल पहल।।
उड़ गया प्रेम में मतवाला हो,
दूर से निहार कर करने लगा विनय ।।
और क्या देखा?
होठों पे मुस्कान लिए वो
देह का श्रृंगार किये वो
चलने लगी जब राह अपने,
मानो चमक उठी धरा पे,
भोर की प्रथम किरण बन वो।
बिखर रही थी छटा दिव्य सी
मानो पूर्णिमा चाँद की वैभवता हो।।