हर परदेसी वनवासी है।
हर परदेसी वनवासी है।
घर का राजा करे गुलामी
रानी बिटिया दासी है
किसका किसका दर्द लिखूँ
हर परदेसी वनवासी है।
छोड़ पढ़ाई घर से निकले
सपने कितने टूटे हैं
जीवन के पथ में न जाने
कितने अपने छुटे हैं।
चला चैन की खोज में राही
दूध मुंहा संन्यासी है
किसका किसका दर्द लिखूँ
हर परदेसी वनवासी है।।
नन्हे नन्हे हाथ, फूल से
भारी बर्तन धोते हैं
खाकर गाली सेठों के ये
अंदर अंदर रोते हैं
इन चहकते दीपों के
जीवन में घोर उदासी है
किसका किसका दर्द लिखूँ
हर परदेसी वनवासी है।
छोड़ चहकना चिड़ियों सा
वह झाड़ू पोंछा करती है
जोर ज्वर जकड़े जितने पर
सबका पेट वह भरती है
कल के उड़न परी का जीवन
कैसा बासी बासी है
किसका किसका दर्द लिखूँ
हर परदेसी वनवासी है।।
