शबरी के जूठे बेर
शबरी के जूठे बेर
शबरी के जूठे बेर
शबरी के जूठे बेर प्रभु के
ऐसे मन को भाए रे
जैसे मईया कैकयी के
आंचल का ममता पाए रे
कौशल्या के भाव थे मन में
राजभोग से प्यारे थे
नेह के अश्रु मोती जैसे
कैसे पांव पखारे थे।
बैठ चटाई कुटिया में
रघुनाथ मेरे मुस्काए रे
जैसे मईया कैकयी के
आंचल का ममता पाए रे।।
धन्य हुई माता भिलनी
वर्षों से राह निहारी थी
स्वागत में निस दिन शबरी
आंचल से राह बुहारी थी ।
कर के दर्शन रघुवर भी
बस मंद मंद मुस्काए रे
जैसे मईया कैकयी के
आंचल का ममता पाए रे।।
संधि के लिए सुग्रीव से
ऋष्यमूक का राह बताई है
लेकर ज्ञान प्रभु से फिर
निज बैकुंठ धाम पधारी है
भक्ति से प्रसन्न राम जी
अंत: तल से हर्षाए रे
जैसे मईया कैकयी के
आंचल का ममता पाए रे।।
कवि अमित प्रेमशंकर ✍️
