बाग़ी
बाग़ी
मैं मंदिर जाया करता था, चालीसा गया करता था
बस अपने ही इष्ट के पैरो पर, मैं शीष झुकाया करता था
वो सजदे गाया करती थी, दरगाह को जाया करती थी
अपने नज़मों में रोज़ सवेरे अज़ान लगाया करती थी
मैंने देखा बस उसकी आंखों को, बस सुनता था उसकी बातों को
जो रूह हिजाब के पीछे थी, महसूस किया उसके एहसासों को
नज़रों ने दिल को भेद दिया, एक दूजे को हमने देख लिया
“तीलक” “बुर्के” को क्या मालूम, उसने गला धर्म का घोंट दिया
मैं मंदिर जाना भूल गया, वो सजदे करना भूल गयी
जिस मोड़ पर दोनों मिलते थे, बस बात वहीं से फैल गयी
दिल की धड़कन कुछ और बढ़ी, जरा इश्क़ ख़ुमारी और चढ़ी
दिल दोनों खोए बैठे थे, जितना रोका सर और चढ़ी
यारों ने हमको खूब कहा, दोनों ने ताना खूब सहा
दिल के हाथों मजबूर थे यूं, हम अड़े रहे दिल अड़ा रहा
कुछ लोग जो हमसे जलते थे, हमें देख के हाथ जो मलते थे
हमने उनको ललकारा था, जो खुद को मसीहा कहते थे
हमें किसी धर्म से बैर नहीं, कोई भी हमसे गैर नहीं
हर कौम पर है विश्वास हमें , पर बड़ बोलों की खैर नहीं
जो हमको घेरे रहते है, वो घोर अंधेरे रहते है
बस अपनी ज़िद की चक्की में, हम सबको पिसते रहते है
आन-बान की बात रही, यहाँ जाति की बात सही
मज़हब से ऊपर जो बोले, इंसान की है औकात नहीं
बस सोच-सोच का फर्क है, ये दुनिया को बस हर्ज है ये
मजहब से उनका काम नहीं, बस झूठी शान का तर्ज़ है ये
तू दूर सही पर दूर नहीं, ना मिलने को मजबूर नहीं
क्या फर्क है दो जहानों में, ना यहाँ कहीं तो वहाँ सही
हम मिल जाएंगे पक्का है, न प्रेम का धागा कच्चा है
दिल की राहों को मोड़ सके, किसका इरादा इतना पक्का है
हमने कोड़े भी खाए है, पत्थर खाके मुसकाए है
जब प्राण पखेरू निकले थे, हाथ थामे जान गवाएँ है
अपना मरना कुछ खास नहीं अपने मन में अवसाद नहीं
अमर प्रेम की गाथा में हमने भी नाम लिखाए है