हँसता दर्पण
हँसता दर्पण
कभी कभी विश्वास आँख का, काजल ले जाता है...
कभी-कभी विद्वान सूझ पर, अपनी पछताता है...।
कभी-कभी छल दर्पण को भी, आँख दिखाता है।
पत्थर को भी आवारापन, रोज रुलाता है।
खो जाती है मर्यादा बाजारू सड़कों पर...
और कभी अनुभव झुकता है, छोटे लड़कों पर।
कभी हृदय भी टुकड़े टुकड़े होकर गिरता है।
जब कोई अपना ही अपनेपन को छलता है।
काँटों को ले फूल कभी आलिंगन करता है।
भोलेपन से चंचलता का काँटा चुभता है।
मैं सुचिता की बलिवेदी पर न्योछावर होता।
कास हृदय ये पल दो पल का यायावर होता।
छल को छल से छलना आता तो हँसता दर्पण।
नहीं कभी ऐसे दीवारों से गिरता दर्पण।।