हिस्सा
हिस्सा
अपने हिस्से का
सारा प्रेम
पा चुकी हूं मैं
दुनिया के
तमाम रिश्तों
का मान
मिला है मुझे
बंजर जमीं
से भी मिली है नमी
पत्थरों ने भी दिया है
प्यार बेशुमार
पूजती हूं हर रोज शालिग्राम
जब कभी
अपनी गरीबी का
एहसास होता है
छू कर आती हूं
पारस को
बन जाती हूं कुंदन
थकने लगती हूं
तब पारिजात
के नीचे सुस्ता लेती हूं
फिर से ऊर्जावान होकर
चल पड़ती हूं
उस सफ़र पर
जहां से
लौटना नहीं होगा
अपनी मंजिल पर ।