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Bhawna Kukreti

Abstract Fantasy

4.5  

Bhawna Kukreti

Abstract Fantasy

उसने चाहा लिखना..

उसने चाहा लिखना..

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उसने 

एक दिन चाहा 

 ये लिखना कि

"क्या अब भी

एक अधूरापन 

लेती हुई चलती हो,

देखो थक जाओगी 


मन पर भार ढोते ढोते,

इन आंसुओ के नमक 

को मुस्कान की मिठास 

से कब तक 

भीगोती रहोगी !"


अलबत्ता सब कुछ 

लिखते हुए

लिखना चाहता था यह भी 

कि अब हर उस जगह 

झिलमिलाती भीगी

सलामियाँ मिलती है

मेरी आँखों को तुम्हारी


जहां यकीन नहीं था तुम्हें

मुझपर रत्ती भर

की मैं वो हूँ 

जो रुक सकता है

किसी के लिए

बेशर्त, सालों साल।"


मन ही मन 

सोचता रहा कि लिख डालूं

"किस लिए 

और कबतक जुझोगी

अपनी उस बात के दंश को

खुद पर,


तुम क्लेश समझोगी

पर मैं

गया वक्त नहीं 

जो लौट न सकूं

तुम पता नहीं 

जानती भी हो या नहीं

कि मैं ठहरा हुआ किनारा हूँ


वैसा ही, वैसे ही

उसी वक्त और सिलसिलों में

क्या तुम 

पुकारना भी नहीं चाहोगी

बीते मौसमों की ख़ातिर?


मगर लिख न सका

 इतना भी की

"शायद ऐसा कुछ भी न करो तुम

की तुम मेरी तरह नही हो 

मैं अनदेखा औ खारिज़ नही 


कर सकता नीम खूबसूरत पलों को 

जीते हुए, रहते हुए आज के साथ

और तुम..तुम तो वह थी ही, हो और रहोगी 

"नदी "सी

जो सिर्फ लय और 

ताल में बहते चलती है 

वर्तमान के"


लिखते हुए सब 

रख दी सारी बाते 

उसने वापस यादों के मुहाने पर

की दिल ने याद दिलाया

यही तो वो बात थी

जिसने खींचा था

उसका मन,

जिसने सींचे थे

निर्जर अंतर्मन।


वह सिर्फ 

इतना लिख पाया 

और छोड़ आया 

अधूरा बेनाम ख़त

वक्त की देहरी पर कि

वह आखिर

ऐसी क्यों है ? 

मैं आखिर 

ऐसा क्यों हूँ ?


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