उधेड़बुन
उधेड़बुन
उधेड़बुन सी है जिंदगी में,
कुछ समझ में नही आता है,
न मंजिल है, न रास्ता ही,
कुछ समझ में नही आता है।
बदलाव तो नियत है, मालूम है,
पर इसका "भाव" समझ में नही आता है।
ज्यादा सोचने से सब उलझ जाता है,
उलझे सवाल का उत्तर समझ में नहीं आता है।
कहते हैं, रो लिया करो कभी-कभी,
रोने से मन हल्का हो जाता है,
पर कब तक उलझे-उलझे से रहेंगे,
किस्मत का ये बर्ताव समझ में नही आता है।
रूठने वाले तो हमेशा रूठे ही रहते हैं,
उनको मनाने से खुद का दिल रूठ जाता है,
मुकद्दर की मुफ़लिसी अजीब सी है,
हर प्रयास का फल, पत्थर हाथ आता है।
दिन भर की थकान तोड़ देती है,
रात को मरकर सुबह फिर से उठ जाता हूँ,
हाल-ऐ-वफ़ा मुश्किल लगता है हरपल,
कल के बारे में सोच दिल ठहर जाता है।
ये दुनिया उसीको सलाम करती है,
जिसके पास धन-भंडार होता है,
इंसान की कोई अहमियत नही है,
बस पैसों का बाज़ार नज़र आता है।
लगे तो सब हैं उसी कतार में ,
बस थोड़ा आगे या पीछे है,
जाहिलों जैसी हालत है पढ़े-लिखों की,
ये बेमेल सा किरदार समझ मे नहीं आता है।
चंद सिक्कों की मुसाफिरी बेमौत मारती है,
"कुल" से दूर तन्हाई बेमौत मारती है,
खुद से भी जुदा हो जाते हैं अक्सर,
वजूद खोकर भी सुकून नही आता है।