है इश्क़ अब ताजिराना कैसा
है इश्क़ अब ताजिराना कैसा
है इश्क़ अब ताजिराना कैसा
बदल गया है ज़माना कैसा
ये ज़िंदगी है उधार की तो
किसी को अपना बनाना कैसा
अगर न आए तुम्हीं इधर तो
ज़माने भर को बुलाना कैसा
उन्हें ये ज़िद है कि मुस्कराओ
बिना ख़ुशी मुस्कुराना कैसा
जो हाल अपना सुना न पाए
इधर उधर की सुनाना कैसा
सजाओ गुलशन ख़िज़ाओं में भी
बहार में गुल खिलाना कैसा
अभी अंधेरे हैं बस्तियों में
नज़र पे चश्मा लगाना कैसा
न हो अगर इख़्तियार ख़ुद पर
किसी पे हक़ मालिकाना कैसा
है ये लड़ाई अना की केवल
इसे बढ़ाना घटाना कैसा
ये दिल संभलने में ही न आया
लगाया तुमने निशाना कैसा।