आम कीजिए मुझे ख़ास कौन कर गया
आम कीजिए मुझे ख़ास कौन कर गया
आम कीजिए मुझे ख़ास कौन कर गया
वो तो इक सराब था जाने अब किधर गया
मैं कहाँ कहाँ गई इक तिरी तलाश में
तू मिरा नसीब है तू कहाँ ठहर गया
लाख कोशिशें हुई बाँध लें इसे यहीं
कौन रोकता उसे वक़्त था गुज़र गया
और क्या मैं माँगती शाम के चराग़ से
रौशनी तमाम वो नाम मेरे कर गया
इस क़दर हवा चली कुछ मुझे दिखा नहीं
प्यार का गुबार था सब ख़राब कर गया
ज़िंदगी फटी हुई इक किताब सी रही
रोज़ इस किताब का सफ़्हा इक उतर गया
शोर था मचा हुआ दूरियाँ थी दरमियाँ
मैं पुकारती रही कारवाँ गुज़र गया
पेट की पुकार थी छोड़ना पड़ा सदन
नौकरी तलाशने गाँव से नगर गया
बार-बार तू नज़र यूँ न आज़मा 'सरु'
फिर उसे न देख जो आँख से उतर गया।