गुरूजी नहीं आए
गुरूजी नहीं आए
कहें भी तो क्या,
केवल आम लोग जो हैं,
वीआईपी होते तो और बात थी,
क्या पता ये ही हॉस्पिटल के कम्पाउण्डर चाय-कॉफ़ी पिलाते,
आइये मैडम, क्या लेंगी
वाली चाटुकारिता भी खूब होती।
तभी तो सरकारी अफ़सर बनने का मज़ा है, है न?
अरे ये पब्लिक ही है बस
वोटिंग का मौसम आता है
वोट बैंक बन जाती है
वैक्सीन लगवाने जाए
तो कम्पाउण्डर भी चने की झाड़ पर चढ़े हुए मिलते हैं ।
कुछ हद तक आम पब्लिक ने ही
पापुलेशन कंट्रोल का ज़िम्मा ले लिया,
अपनी जान जोखिम में डाल के
सही तो है, है न?
चलो आज मेरा भी खूब मूड बना ,
व्यवस्था को करीब से देखने का,
करवा लिया रजिस्ट्रेशन कोविन पर।
अरे! ये तो कोई आम सी बात है,
सोच रहे होंगे ये सब।
मगर चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था ने तो
आज मेरी ही परीक्षा ले ली।
कम्पाउण्डर भी कह गए,
गुरूजी नहीं आए,
वहीं सबका नाम, पता और डिटेल्स लिखते हैं
रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ आप सबका,
इसलिए वैक्सीन नहीं लगेगी।
न ही पालन किया दो गज की दूरी का
मास्क भी उतरता रहा नाक से नीचे
मगर शब्द बाढ़ छोड़ने से पीछे नहीं हटे।
कह गए आसानी से
इंतज़ार कर लीजिये दो तीन और घंटे
क्योंकि गुरूजी गए हैं लंच करने
आ जायेंगे थोड़ी देर में
और राह तकते रहे हम गुरूजी के
मगर भव्य दर्शन होने से रहे।
दो-तीन घंटे,
इंतज़ार करवाने के बाद कम्पाउण्डर लगे ज्ञान झाड़ने
कर दीजिये कम्पलेंट
चार दिन से वैक्सीन नहीं आ रही थी,
तब भी लोग बैठे थे,
और अब भी बैठे हैं।
कुछ बातें तो हमें भी नहीं पता होती
सब नर्स को ही पता होती हैं।
लो भई अब कर लो बात,
पहले ही ये बात कह देते कम्पाउण्डर साहब।
देख लिया आज स्वास्थ्य व्यवस्था का हिसाब-किताब,
नाच न जाने आँगन टेढ़ा वाला हाल।
कहें भी क्या,
पब्लिक ही तो हैं बस यार।