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तेरे इश्क़ ने काबिल बना दिया

तेरे इश्क़ ने काबिल बना दिया

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प्रिन्सिपल की बेटी को अपना बनाने को,

निकल पड़ा में किस्मत आजमाने को।

अब करता था हरकतें सारी शरीफों वाली,

उसके बाबा के साथ मैं बन चुका था आधा माली।


रोज आशा होती आज बात होगी,

कभी ना कभी तो वो मेरे साथ होगी।

गली से बाग तक अब हॉल तक था आना,

सफर कठिन था उसके दिल तक था जाना।


दोस्त बन ही गये हम कुछ दिनों में,

बज रही थी सरगम मेरी धड़कनों में।

एक दिन प्रिन्सिपल ने ऐसा बिगुल बजाया,

घर से, बाग से, मुझे गली से भी भगाया।


कुछ दिनों बाद उसका फोन आया,

मिलना है उसको मुझसे फोन पर बताया।

मैं भागा-दौड़ा पहुँचा प्रिन्सिपल ने माँगी माफ़ी,

बाबा ने भी आज मुझको पिलायी थी कॉफी।


उस दिन लौटकर मैंने फिर पैग बनाया,

पापा ने नहीं ये मैंने ही लगाया।

गजलों का दौर रात भर बातें थीं वफ़ा की,

कभी गालिब, कभी शायरी मुशतफा की।


हो चुकी थी सुबह सूरज भी चढ़ आया,

नई ज़िंदगी में आज पहला कदम बढ़ाया।

किस्साये इश्क़ मैंने बेटी को था सुनाया,

मेरी बातें सुनके पापा को रोना आया।


प्यार सच्चा वो भी जो हासिल नहीं हुआ,

शायद में उसकी वफ़ा के काबिल नहीं हुआ।

खुश हूँ मगर की मैंने, इश्क़ की चादर जो ओढ़ ली थी,

पुजता हूँ उसको इसलिए, बेटी ही गोद ली थी।


रो लिया था अब में भी कहते हुए ये अफसाना

वो कोई और ही वक़्त था अब और है जमाना।

कैन्टीन का वो दौर था अब दफ्तर की नौकरी,

आँगन है मेरे घर का उम्मीदों की टोकरी।


अपनों की वक़्त की कद्र करना सिखा दिया,

तेरे इश्क़ ने मुझे भी काबिल बना दिया।

ख्वाहिशों के दरिया का साहिल बना दिया,

तेरे इश्क़ ने मुझे भी काबिल बना दिया।।


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