खुशी की सच
खुशी की सच
आज जब थोड़ा वक़्त मिला, ज़ाया करने के लिए,
तो बीते वक़्त के कुछ पन्ने पलटे,
अपनी डायरी पे जमी धूल को झाङा,
उन लफ़्ज़ों को पढ़ा जो कभी मेरी ज़ुबानी हुआ करते थे |
उन पे जमी धूल हटाते-२ कुछ ख़ालीपन का अहसास हुआ,
अहसास हुआ की बदल गई हूँ मैं,
मैं ऐसी तो कभी ना थी,
बंदगी और खामोशी तो मेरी पहचान कभी ना थी,
बेबस, लाचार और जिंदगी से हारी तो मैं कभी ना थी |
किसी की लाश में भी जान फूँक देने वाली थी मैं,
फिर आज ना जाने क्यूँ खुद के बेजान जिस्म से सिहर सी गयी हूँ मैं |
अब तो बस,
तन्हाई के कफ़न मे लपेटी हुई एक अधमरी जान हू मैं,
जो हर रोज़ नक़ाब पहनकर सच की तलाश मे निकलताी है ।
वो नक़ाब, जो मुझे मुझसे ही अजनबी बने रहने मे मदद करता है,
वो नक़ाब, जो मुझे मेरेपन से दूर रखता है,
पर हाँ! ये नक़ाब मुझे औरों से जोड़े ज़रूर रखता है |
हर रोज़, बिना किसी चूक के, ज़रा सी खुशी टटोलने निकलती हूँ मैं,
सफ़र मे मिले हर दरवाजे पे दस्तक देती हूँ,
कोई तो सौदागर होगा, जो सौदा कर जाएगा मेरी खुशी का,
कोई तो मुसाफिर होगा जो मुझे राह दिखा जाएगा सच की |
पर कम्बख़्त हर रोज़, शाम को औंधे मुँह घर लौटती हूँ,
खाली हाथ !
एकदम भी खाली नहीं,
ज़रा सा सौदा कर लेती हूँ ।
खुद की खुशी तो मिलती नहीं,
पर दुनिया भर से ना-उम्मीदी और गम बटोर लाती हूँ,
वह भी सूद-ब्याज के साथ ।
और इसका बोझ दुगुना होता जाता है,
हर ढलते दिन के साथ ,
पर इस लम्हा महसूस हो रहा !
कितनी नादान हू ना मैं !
कभी नक़ाब हटा कर खुद के अंदर झाँका ही नहीं,
कभी खुद से पूछा ही नहीं,
शायद खुशी मेरे अंदर ही बसी हो,
जिसे सिर्फ़ मेरी एक आवाज़ की ज़रूरत हो,
शायद यही वो सच हो,
जिसकी तलाश में मैंने ना-जाने कितने दर भटके,
शायद यही करना इस वक़्त की माँग हो !
