माँ
माँ
कहाँ से ढूंढ लाऊँ मैं,
वही पुरानी माँ को,
जिसके आँखों के तेज से
घर रोशन हुआ करता था।
जिसकी चूड़ी की खन-खनाहट से
मेरी सुबह और शाम हुआ करती थी।
हर बीतते पल के साथ,
ना जाने कैसे रोशनी धुंधली होती गयी
और आवाज़ मद्धम होती गयी।
अब तो मैं जानना चाहती हूँ,
माँ के मुखौटे में उसको,
वो जो कभी, एक हँसती मुस्कुराती
लड़की हुआ करती होगी।
वो जो कभी लाड़-प्यार के लिए
बिना वज़ह रूठ जाया करती होगी,
और वही जो अपनी खिल-खिलाहट से
घर-आँगन में खुशियाँ भर दिया करती होगी।
ऐ मेरे खुदा ! तू ही बता,
है कोई तरीका जिस से मैं,
मेरी माँ की रूह को जान पाऊँ,।
उसकी पसंद-नापसंद को समझ पाऊँ,
उसके सुख और दुःख का साथ बन पाऊँ।
क्यूँकि इस माँ के किरदार में,
वो तो एक जीती जगती कठपुतली बन गई है।
जिसके अस्तित्व का सिर्फ एक ही सच है,
और वो सच सिर्फ मैं हूँ।
मेरी झोली में खुशियाँ भरते-भरते,
ना जाने कब उन्होंने अपनी झोली खाली कर दी।
मुझे जीना सीखाते-सीखाते,
ना जाने कब उन्होंने
अपनी साँसे गिनना बंद कर दी।
मैं जानना चाहती हूँ,
कैसी होगी मेरी माँ ?
माँ बनने से पहले ?
मैं, माँ के समान सोच-समझ नहीं सकती,
पर इतना तो समझ आता है कि,
ये आसान नहीं है।
ये आसान नहीं है !
एक लड़की से एक औरत बनना।
एक बच्चे को जन्म देना और फिर
उसे अपने पैरों पे खड़ा करना,
शायद यही वज़ह है कि,
मेरी क़दमों में जान भरते-भरते
उनकी नब्ज़ कमज़ोर हो गई।
मेरी साँसे उनकी साँसों से
कुछ इस तरह जुड़ गई
कि उन्हें खुद की साँसों का
एहसास ही नहीं हुआ।
अब तो वो जीती भी सिर्फ मेरे लिए,
और उन साँसों पे भी सिर्फ़ मेरा नाम होता है,
गिला तो बस इस बात का है कि,
पंख लगते ही मैं उड़ गई।
कभी पलट कर नहीं देखा
उस आशियाने को,
वहाँ जहाँ, एक जोड़ी आँखे आसमान पे
टक-टकी लगाए बैठी थी, मेरे इंतज़ार में।
आज जब उनका ख्याल आया तो लगा
अभी बहुत देर नहीं हुई,
फिर से नयी शुरुवात कर सकती हूँ,
फिर से उस आशियाने में जाकर
एक नयी कहानी लिख सकती हूँ,
एक ऐसी कहानी जिसमे,
मेरी माँ जियेंगी एक बार फिर से
अपना बचपन ! अपना लड़कपन,
उसकी खट्टी-मीठी यादें
और साथ में मेरी अतरंगी शैतानियों का तड़का !|
