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यथार्थ

यथार्थ

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विचरण करते व्याध शहर में, घुसे भेड़िये गावों में,

बिटिया तू महफूज़ रहेगी सिर्फ पिता कि छांवो में,


नहीं चाहता कि मैं डालूं बेड़ी तेरे पावों में

विसरित ना होने दूँ तेरे सपने मुक्त हवाओं में

पितृ-हृदय आहत है किंतु निर्मम नियति प्रहारों से

अत्याचारी के अन्तस् में उमगे मनो विकारों से


सिहर सिहर कर खंडित होता दृढ़ निश्चय घटनाओं में

बिटिया तू महफूज़ रहेगी सिर्फ पिता की छांवो में,


मन्दसौर में ग्रास बनी एक बच्ची वहशीपन लय की

मानवता ने नई सीमाएं गढ़ दी अपने अवक्षय की


और कठुआ के मन्दिर का वह सेवक प्रभु-अनुरागी था

किंतु आसिफा कि अस्मत की नीलामी का भागी था


यहाँ बेटियों की रक्षा का जिसके सिर पर सहरा है

वही प्रशासन नाकामी का घाव लगाए गहरा है


घिरा हुआ है सभी बेटियों का भविष्य विपदाओं में

बिटिया तू महफूज़ रहेगी सिर्फ पिता की छांवो में


सदी निर्भया की पीड़ा का बोझ उठाये है भारी

जिसको निर्दयी नर-गिद्धों ने नोचा था बारी बारी

अंग भंग कर नृत्य मुदित थे वे पैशाचिक गुण ग्राही

त्राहि त्राहि चीखा भू-मंडल नभ सिसका त्राहि त्राहि


व्यथा निर्भया की कह दे साहित्य में वह शब्द नहीं

किन्तु आज भी दिल्ली अपने विचलन पर स्तब्ध नहीं


आग जलाकर मुक्त हुई मोमबत्ती और अलावों में

बिटिया तू महफूज़ रहेगी सिर्फ पिता की छांवो में


आशारामों राम रहीमों का पुट है उन्मादों में

हवस मिलाकर बाँट गए जो मन्दिर के प्रासादों में


और मौलवी वह यू पी का नहीं किसी से कमतर था

उसकी पाक अजानों में भी छिपा वासना का स्वर था


पंडित-काज़ी के कृत्यों से शर्मिंदा ये धर्म हुए

मन्दिर मस्जिद के प्रांगण में कुसित ओछे कर्म हुए


लगता है भगवान नहीं है बांकी अब प्रतिमाओं में

बिटिया तू महफूज़ रहेगी सिर्फ पिता की छावों में ।।


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