प्रेम क्या है?
प्रेम क्या है?
सर्वस्व, समग्र, व्यथा हरि हारा,
तेज़ में मित्र ये भक्त तुम्हारा।
लाज रखि हरि
हे राधा मन बसिया
स्वर में गीत सजे तुम्हारा।
मैं ति सखा तुहारी बलिहारी
मन में प्रेम की आस ही भाए
सम्पूर्ण दुनिया करत नाशातीत अभिनया
अभिन्न सुरुचि से अलगाव करेया।
ढेर सुमन खिले जे पुष्प वाटिका में
उजाड़ भवन में बदले मानवीया!
दौड़-धूप को कर्म ही जाने
न जाने तो कर्म का अर्थ।
अर्थी विसर्जन जब तक न होई
उपजे सोना और कृत्रिम धन।
प्रेम चाहे जो मोर मन
वो सुसज्जित धनी पुरुष न जाने।
ले लो मुझे अपनी शरण में, हे बलिहारी !
प्रेम का सन्देश जो मैं लेकर आई
दुनिया को वो सन्देश न भाया,
सब बंधे रहे किसी शरीर के मोह माया में
मैंने तो जग ही त्यज दिया।
क्यों भक्ति का कर्म पाखंडी करे?
चार चक्कर आपके काटे
फिर बेवकूफ़ दूसरों को बनाये।
ऐसी भक्ति से तो मेरी मित्रता भली,
कहूँ जो कुछ भी आपने सहर्ष स्वीकारा,
कह गए स्वप्न में कि मेरी गाली भी आपको मीठी लगी
क्यों न समझा फिर भी जग ने प्रेम तुम्हारा?
हे बलिहारी, प्रेम मेरे वश में नहीं
मैंने अब से ये प्रतिज्ञा की
जहाँ प्रेम नहीं, वहां मैं लक्ष्मी नहीं।
