गजल(इंकलाब)
गजल(इंकलाब)
जब जब भी पकड़ा सच का दामन, झूठों की मिलती रही धमकियां,
मैं करता रहा हवन
औरों के लिए जलती रही अपनी ही उंगलियां।
न दिया सिला रहनुमाओं ने कोई, सिवाय दर्द, गम, जख्म आंसू और सिसकियां।
बहुत छटपटाया अपनों के दर्द से, चीखा भी पूरे जोर से
मगर सुनायी नहीं दी हमारी बात क्योंकि पत्थर बन चुकी थी सारी यह बस्तियां।
हौसला तूफान को भी झेलने का रखा है सुदर्शन,
क्या हुआ गर हाथ में हैं कागजों की कश्तियां।
माना तोड़ सकते हैं अकेले एक धागे को सभी,
टूट न पायेंगी सच्चाई के बन्धन की बनी ये रस्सियां।
आग से खिलवाड़ करने की न करना कोशिशें कभी,
यह भी याद रखना मोम से बनी हैं तुम्हारी कुर्सियां।
आएगा कभी नंगे पांव चलकर इंकलाब सुदर्शन,
टूट जाएंगी उस दिन जुबान की सारी चुप्पियां।
मत सोचो गरीब की इज्जत नहीं होती, जी भर कर सुन लेता है हरेक की तलखियां
जाग उठेगा जिस दिन उसका मालिक उजाड़ के रख देगा तुम्हारी ये सारी बस्तियां।