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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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घने अंधेरे के भूत

घने अंधेरे के भूत

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घने अंधेरे के भूत है,हम 

दिखने में कुरूप है,हम

इंसानों से ज्यादा नहीं, 

डरावने,छली होते है,हम


जब होती रात अंधियारी, 

तब होती सुबह हमारी,

जग से बाहर नहीं है,हम 

घने अंधेरे के भूत है,हम


जग-पिंजरे से रिहा हुए ,

अब बड़े ही खुश है,हम

खुद मस्ती के बुत है,हम 

जग भूतपूर्व सबूत है, हम


नहीं कोई रिश्तों की डोर, 

नहीं कोई स्वार्थ का मोर,

स्वार्थी जग से दूर है,हम 

घने अंधेरे के भूत है,हम


खुद के मतलब के लिये, 

न करते कोई लूट है,हम

झूठ में, सच छिपाते नहीं है,

उजले भूतों से अलग है,हम


घने अंधेरे के भूत है,हम 

शिव भक्त अद्भुत है,हम

स्वार्थ,ईर्ष्या-द्वेष, झूठ का, 

पिलाते न कोई घूंट है, हम


बन गये भूत बड़ा अच्छा है, 

इंसानी बस्ती से दूर है,हम

व्यर्थ किसी को सताते नहीं, 

सत्य के निःस्वार्थ दूत है,हम


खास की भूत पहले बनते, 

स्वार्थी जग से जल्द हटते,

अधूरी इच्छा की घूंट है,हम

पर जरा भी बुरे नहीं है, हम


न जाने क्या गलतियां की,

भूत होने की सजा मिली,

अब न करेंगे बुरे कर्म कोई 

भूत होकर अच्छे हुए है,हम


घने अंधेरे के भूत है,हम 

करते नही छुआछूत,हम

दिखने में कुरूप है, हम

पर पश्चाताप में जल कर 

खरे कुंदन हो गये है, हम



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