–दीवारें बात करतीं हैं
–दीवारें बात करतीं हैं
सुनो खामोश रहकर क्या दिवारें बात करतीं हैं ।
इधर सुनना उधर कहना यही दिन रात करती हैं ।
जहां गम की फसल पकती उमड़ आतीं भरी आंखें,
जमीं दिल की जहां तपती वहीं बरसात करतीं हैं ।
लड़ाई आपसी करके,मिटीं पूरी तरह से पर,
नई कौमें सिरे से फिर नई शुरुआत करतीं हैं ।
जिन्हें हम ही बनाते हैं, वो सरकारें अगर दें कुछ,
हमारे हक हमें देतीं, नहीं खैरात करतीं हैं ।
जरा सी देर क्या कर दी उन्हीं के काम करने में,
बिना ही बात वो हम पर बहुत शुबहात करतीं हैं ।
खुदा हर शै में शामिल है, नजर पर वो नहीं आता,
हवाएं हर जगह रहकर, यही इस्बात करतीं हैं ।
कहो ’अवधेश’ कुछ या फिर, लबों को बंद रहने दो,
तुम्हारी नम हुईं आंखें, बयां जज़्बात करतीं हैं ।
