एक से ग्यारह
एक से ग्यारह
जी भर कर
आजमा ले रे समय !
दुःखी
विचलित
और परेशान तो कर सकता है तू
पर तोड़ नहीं पाएगा
चाहे कितनी ही दीवारें
गिरा दे भरोसे की
पर इस जर्जर काया की
जीने की
जुनूनी जिद्द ना हारेगी
जाने कितने जरूरत के
संबंधों की
बलि दी है मैंने
स्वार्थ की सुरंगों के लोकदेवों को
जिसकी नींव ही
पानी में लगी हो,
उसे क्या तोड़ पाओगे तुम
लौट जाओ समय
नर कंकाल से मत लड़ो तुम
साँसों की आहूति तो
दशकों पहले दे चुका हूँ
तुझे
अब तो ख्वाबों की छाया-भर हूँ
क्यों व्यर्थ उलझते हो ?
जाओ!
शायद गलत पते पर आ गए हो !
समय के विचलन ने
मेरे धैर्य और
सकारात्मकता को
एक से ग्यारह कर दिया है।
