एक ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
ऐसा नहीं ज़ख़्म हमने नहीं खाये हैं
यह तीर हमने अपनों से ही खाये हैं...
आँसुओं के सौदागर मिले बहुत पर
हम उनके आंसूं भी खरीद लाये हैं...
क्या पाओगे खुलके जो रो दोगे
लोगों ने चेहरों पर नकाब चढ़ाये हैं...
मतलब की इस भरी दुनिया में
गुज़र गए जो लोग वह भी पछताए हैं...
तन्हाइयों में पलके तो भीगी ज़रूर
पी लिए वह आंसूं जो कभी आये हैं ...
वीरानियों के इस अँधेरे आलम में
क्या कभी यहां दिन भी चढ़ आये हैं...
अंधेरों में चेहरों को टटोलकर लोग
खुली आंखों से क्या कुछ देख पाए हैं ....
अब तो इंसान खुदा बन बैठा हैं
और भगवान चुपके से बिकता जाये हैं ...
शरीके जुर्म में हर चेहरा हैं यहां
ऐसा आईना सबको दिखया जाये हैं ...
दिल चला चल अपनी ही रवानी में
हर मंज़र पर हम कुछ न कुछ पाए हैं .....
