दर्पण
दर्पण
भले ही कांच का है वो टुकड़ा
चुभता है तो बुरा कहते हैं उसे
दिखा जो देता है सच्चाई सबकी
चरित्र की बात हो या चांद सा मुखड़ा।
धूल लगे उस पर तो पोंछते हैं
बेशक वो कहना चाहे कुछ और
वो तो हमेशा एक ही रहता पर
दिखता नहीं परदे पीछे का दौर।
तेरे सामने वो पछताता है खुद पर
खंजर मार दे कहे भरोसा रख मुझ पर
सौन्दर्य प्रसाधन भी फीका पड़ जाता
जितनी शीघ्र था वह काया बदल जाता।
वो बिना तुझे देखे बाहर जायेगा भी नहीं
तुझमें जो देखा किसी को बताएगा भी नहीं
सोचेगा अब मैं छोड़ दूंगा सब बुराई को आज
पर छोड़ने का वो क्षण कभी आएगा भी नहीं।