दो जून की रोटी
दो जून की रोटी
भूखे पेट की सिसकियाँ आँखों से बरसती हैं l
यहाँ दो जून की रोटी को जिंदगी तरसती है l
जेठ की दुपहरी में नंगे पाँव गरीबी चलती है l
फिर भी दो बूंद जिंदगी की बेमोल मिलती है l
महंगाई की मार गरीब की कमर तोड़ती है l
घुटती जिंदगी जीने की आस भी छोड़ती है l
होंठों तक आकर भी मुस्कान लुटती है l
बंद बोतलों में साहब यहाँ पानी बिकती है l
बंजर प्यासी धरती हरियाली को तरसती हैl
ठूँठ की चिड़िया जल बिन मछली सी तड़पती है l
प्रदूषण की दावाग्नि जिंदगियां निगलती है l
अनु अब तो हवा भी बंद डिब्बों में बिकती है l
छोटी छोटी कोठरियों में जिंदगी सिमटती है l
अपनों के प्यार के लिए बूढ़ी आँखें तरसती है l
जेठ की दुपहरी में दो निवाले जुटाने जिस्में तपती है l
गरीबी से उबरने में तमाम उम्र कटती है l
उस दुकान का पता दे जहाँ खुशियाँ बिकती है l
वो फनकार कहाँ है जो फटे अरमान सिलती है l
छूटती, घुटती जिन्दगियाँ हर पल सिसकती है l
झुलसता बचपन को मासूमियत को तरसती है l