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Ashish Mishra

Fantasy Inspirational

4  

Ashish Mishra

Fantasy Inspirational

धूप

धूप

2 mins
246


धूप में खड़ा-खड़ा

नाप रहा हूँ 

अपनी ही लम्बी होती 

परछाई को,

कभी छोटी तो 

कभी बड़ी होती है

कभी यहीं तो 

कभी दूर खड़ी होती है।


मैं बोलता हूँ वो बोलती नहीं

लेकिन वो सजीव है

मैं हिलाता हूँ तो हिलती है

मैं चुप तो वो चुप

मैं हँसा तो वो हँसी।


हाथ फिराया तो 

परछाई में नमी लगी

शायद मेरे पसीने में भीगी लगी।

तभी पसीने की एक बूँद 

फिर टपकी - टप्प

ठीक बिवाई की 

दरार पर,

जैसे कोई अगरबत्ती जली हो

रेत में धंसी मज़ार पर।


मैं भी सजीव हो उठा

दौड़ने लगा धूप में

परछाइयाँ बटोरने लगा धूप में 

तनहाइयाँ निचोड़ने लगा धूप में।


तभी, तभी, तभी वहाँ एक 

बादल का टुकड़ा उड़ा

दिखने में छोटा

लेकिन धरा से बड़ा


मैंने कहा ए हवा के नक़्शे 

कौन हो बताओ?

कहने लगा मैं छाया हूँ

सबेरे से बहुत धूप 

खंगाली तुमने 

लो कुछ साँझ लाया हूँ

लो कुछ साँझ लाया हूँ



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