दास्तां-ए-मोहब्बत
दास्तां-ए-मोहब्बत
नज़रें मिली फिर प्यार हुआ
इज़हार हुआ इक़रार हुआ
था अनजान जो कल तक
वो फिर आशिक़ और हकदार हुआ
वक़्त बीत गया मन भरता गया
जो था ना करना, करता गया
फिर वो भी हुआ जो ना था होना
शुरू हो ही गया रोना धोना
वो बिछुड़ गए आखिर दोनों
बर्बाद हुए माहिर दोनों
ज़ाहिर दोनों अब किसको करें
घुट घुट के जीये फिर रोज़ मरे
फिर सीख गये सहना भी वो
और मान गये कहना भी वो
हिस्सा था बस जीवन का ये
ज़िंदगानी क्यों बैठा था मान
तू अश्क़ छुपा और हँस के दिखा
आगे बढ़ने की मन में ठान
वो सुनता रहा कुछ बुनता रहा
गर्दन को झुका मन ही मन में
फिर खड़ा हुआ और खूब हँसा
फिर निकल गया वो उलझन से
था खेल अनोखा ये मुश्किल
वो खेल खेल में जीत गया
तोड़ के उस बर्बादी की
वो बहुत पुरानी रीत गया
कर शुकराना दिल ही दिल में
वो हँसते हँसते चला गया
और दोनों का किस्सा भी ये
किस्मत के हाथों मला गया...
