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Saurav Kumar

Abstract Tragedy

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Saurav Kumar

Abstract Tragedy

धूप

धूप

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धूप के आईनों में सँवर रहे है हम।

काटी हैं बात जब से, निजाम की आंखों में गर रहे है हम।


एक सिसकियाँ कानों तक आती हैं, सूखे पत्तों की।

दरख्तों की छांव से जब भी गुजर रहे हैं हम।


जिसने मिटाया है मुझको हाथों कि लकीरों से।

उसी के मेहंदी में उभर रहे हैं हम।


मेरे आबरू का तमाशा तो ये आंधियाँ करती है।

और बेवजह परदों से लड़ रहे हैं हम।


हक तो उसे भी हैं खलिश अपनी जाहिर करने की।

जिसके खुश्क घावों को भर रहे है हम।


फिक्र है की कोई तुझे बेपरहन न देख ले।

और किसी फूल की कवाएँ कतर रहे है हम।


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