एक शख्स का गम
एक शख्स का गम
एक शख्स के न होने का ग़म मेरे जेहन में ऐसे घर कर गया।
कि वस्ल की रात भी एक ख्वाब सिरहाने से गुजर गया।
उससे क्या पुछते हों हवाओं का रुख, इस आंधी में जिसका घर उजड़ गया।
एक जमाने से मैं जख्म छुपाने का आदि था, फिर कैसे ये आंसू मेरे गालों पे ठहर गया।
वो गरीब तो दवाएं- मर्ज था, जिम्मेदारी देखो उसे ज़हर कर गया
एक उम्र बचाता रहा आंधियों से जिस चिराग को एक रोज़ खुद बुझाकर मर गया।
तुम्हें माली की खुद्दारी पे शक है,ये जमाने का खौफ है कि फुल खिलने से डर गया।
उसे आईनों की नजर से बचा कर रखना, जिसे तकते- तकते चांद का रात गुज़र गया।
उसे आज मेरे होने पे यकिन नहीं है,कल तक जो मेरी परछाई में ठहर गया।
तुमने तो बस पेड़ काटे, यहां परिंदो का शहर उजड़ गया।