ज़मीर का सौदा
ज़मीर का सौदा
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अब ऐतबार भी मुझ को उसी पे होता है।
सौदा जिसके ज़मीर का पैसों से होता है।
मेरे रोने पे सबसे ज्यादा खुश वहीं है।
जिस घर में रोज़ मेरा आना-जाना होता है।
पत्ते गिरे टहनियाँ टूटी मगर शजर फिर भी खड़ा है।
ये कैसा कफ़ील है जो शजर को निभाना होता है।
यूं ही नहीं होता रातों-रात कोई रहनुमा।
एक चिंगारी से शहर को जलाना होता है।
तुम्हें फिक्र है मेरी ये सिर्फ बातों से नहीं होगा।
जमाने को आँसू भी दिखाना होता है।
"साकेत" कश्ती तो यूं रेत में भी चलती है।
बस दिल के दरिया को बहाना होता है।