दारू की लत
दारू की लत
लत लगी दारू की, कमाई पूरा पी रहा था
बस दिन भर नशे में धुत रहे, इसके लिए ही जी रहा था
परिवार तड़प रहा था, घर में एक बच्ची थी
माँ बर्तन मांज के, जिसकी परवरिश करती थी
घर में जब भी आता था, खूब धमाल मचाता था
मार पिट कर, दोनों मजलूमों का बुरा हाल बनाता था
जेवर सारे बेच दिए, अब हांड़ी बर्तन की बारी थी
अपने किस्मत को कोसती, बीबी जो बेचारी थी
रो-रो के उसके आँखों से, खून अब टपकते थे
रोज चूड़ियां फोड़ देता, हाथों में कहाँ खनकते थे
सात साल की बेटी उसकी, बाप को देख दुबकती थी
फटे-पुराने कपड़ों में, दूसरे बच्चों के तरह कहा चमकती थी
बचपन उसका बीत रहा था, हमेशा खौफ के साए में
तड़प रही थी फूल सी प्यारी बच्ची जिंदगी की दो राहे में
माँ से एक-एक रूपया लेकर छोटी ने, मिट्टी के भाड़ में जमाया था
मेला घूमने जाना था उसको, गुड़िया खरीद के लाना था
दारू की तलब सताया बाप को, बच्ची का भाड़ फोड़ दिया
सारे पैसे ले ठेके के तरफ वो चल दिया
बच्ची ने पापा-पापा कह के उसके पैरो में गिर गई
निष्ठुर को मोह भी ना आया, दूर उसे झिड़क दिया
बच्ची का सर खम्भे से टक्कर खाया, गुड़िया ने आखरी सांस लिया
माँ ने जब ये मंजर देखा, चक्कर खाके गिर गई
बच्ची का मेला जाने की इच्छा, उसके साथ ही चली गई