चंदा रोज निकलता है
चंदा रोज निकलता है
रात-रात भर मुझे निहारे केवल छलता है।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है।
हौले-हौले तन-मन छूती
पुरवाई महकाती है।
दिखा-दिखाकर दर्पण मुझको
तरुणाई बहकाती है।
चुपके-चुपके इन आँखों में कोई पलता है।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है।
नजरों में बस जुगनू चमके
हँसे चाँदनी नीम तले।
लिपट कल्पना करे ठिठोली
दूर राह में दीप जले।
आस-पास यूँ लगता जैसे कोई चलता है ।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है ।
मुँद-मुँद जाए खुद से आँखें
देह गुलाबी हो जाये।
लिए अनछुए पल आँचल में
प्रीति गीत ही बस गाये।
रंग लबों पर फूलों का ज्यों कोई मलता है ।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है ।