दिल के द्वार पर
दिल के द्वार पर


साँझ जब आँसू बहाये,बैठ दिल के द्वार पर।
क्या भरोसा भोर का फिर, क्या तुम्हारे प्यार पर।
छीन निष्ठुर वक्त ने वो खत जला डाले सभी
जो लिखे थे चाँदनी ने बैठ के कचनार पर।
बर्फ जैसे हो गये हैं स्वप्न सारे नेह के
अब भला पिघलें तो कैसे और किस आधार पर।
टूटकर बरसा बहुत ही और क्या करता भला
जब नहीं मानी नदी फिर मेघ की मनुहार पर।
और भी पाना बहुत कुछ जिन्दगी तुमसे हमें
कब कटा जीवन किसी का चुंबनी उपहार पर।
लुट गयीं संवेदनाएँ सब तुम्हारी राह में
तय भला कैसे सफर हो प्रीति के उद्गार पर।
सोचिए तब वेदना की हद रही होगी कहाँ
रो पड़ा जब शूल कोई फूल के व्यवहार पर।