चल झूठा कहीं का
चल झूठा कहीं का
कल जब मिला वह
राह में चलते चलते
तो मैंने यूं ही पूछ लिया पगले से
कितना प्यार करता है मुझसे
कितना चाहता है मुझे
अगर सच में प्यार करता है
तो क्या कर सकता है अपने प्यार के लिए
नज़रें ज़मीं पर गढ़ाकर
दीवाना सुनता रहा मेरे हर अल्फाज़ को
थोड़ा मुस्कुराया, थोड़ा सकपकाया
दिल की बात जुबां पर लाकर बोला
करता हूँ प्यार तुमसे
जितना चांद को चांदनी से
जितना प्यासे को जल से
जितना भंवरे को कली से
जहाँ तक जाती हैं सरहदें प्यार करने वालों की
दुपट्टा दांतों में दबाकर मैं मुस्कुराई
फिर नजरें मिलाकर बोली उससे
चल झूठा कहीं का, वह प्यार भी कैसा प्यार
जो सिर्फ़ शब्दों में बयाँ होता हो
सच्चा प्यार तो भावों में होता है
था भी ये आषाढ़ का महीना
आकाश में शैतान बादलों के झुरमुट से
सावन भी टुकुर-टुकुर झांक रहा था
रिमझिम फुहार भी जैसे बार बार
मचलती जवानी को उकसा रही थी
झूमते बादलों को देख मन बेकाबू था
नयन बंद करके फिर बोली
अगर इतना चाहता है तू मुझे
अब तक भर लिया होता अपनी बांहों में
तेरी सांसे टकरा रही होती मेरी सांसों से
इससे पहले कि कुछ और कहती
पगले ने कसकर अपनी बांहों में भींच लिया
अपनी गर्म सांसों की तपिश से
मन की ज्वाला को और भड़का गया
मेरे अधरों को चूमकर
लगा खेलने मेरे भीगे कोमल बदन से
हुआ अहसास आज मेरे दिल को
कितना चाहता है कोई दीवाना मुझे।

