चाँद रात
चाँद रात
देख सर्द रातों मे बादलों के पिछे छुपे चाँद को
तसव्वुर में जगती है एक कविता
हैरान हूँ की इसे चाँद समझूँ या चेहरा तेरा
चाँद छुपा है यूँ बादलों की गोद में
हो माहताब का रुखसार ज्यों
महबूब की आगोश में
उफ्फ़ तौबा पलकें उठाना तेरा
यूँ गज़ब ढ़ाता है मेरे दिल पे
आफ़ताब को उगते देख जेसे
चाँद का पशेमान होना।
छिपता क्यूँ है चाँद
हौले से निकल
बादलों की गोद से
चाँदनी खड़ी बीच रस्ते
तारों के बीच अकेली
शरमाती लज्जाती सकुचाती
अपने हाथ में दबाये सिरे को ढील दे
तो बिखरे पूरी कायनात पे बेचारी।

