चाहत
चाहत
मैं उसे चाहता था
मैं अगर नींद था तो वो ख़्वाब थी मेरे लिए
मैं अगर झील था तो वो कंबल थी मेरे लिए
उसके होने से ख़ुशियाँ मेरी दोस्त थी
उसके खोने का तो सोचता कैसे
जैसे वो मेरी जान थी
उसकी गली मोहल्ला तमाम से मुहब्बत थी मुझे
उसकी एक झलक ही काफ़ी थी मुझे
मेरी दिन थी वो
मेरी रात थी वो
जब कभी उसके रूबरू हुआ
आवाज़ को ना जाने क्या हुआ
लफ़्ज़ ज़बान पे उलझ जाते थे
कहना कुछ होता था और बात कुछ और करते थे
ये सिलसिला चलता रहा और फिर
उसकी हथेलियों पे किसी और का नाम लिख दिया गया
और मैं उसकी शादी में शरीक था
जिसकी तस्वीर दिल में थी
आज वो अपनी ना थी
एक बड़ी ख़ता कर गये
बात दिल की करने में देर कर गये
जैसा आग़ाज़ था वैसा अंजाम था
अब याद रखने के लिए कुछ नहीं था
बस इसके सिवा
मैं उसे चाहता था
मैं उसे चाहता था।

