बसंत
बसंत
पूछ रहा है बसंत
क्या मैं आ जाऊँ ?
कंक्रीट के महलों
जगह कैसे पाऊँ ?
बढ़ाई क्यों इच्छाएँ
अकारण ही इतनी
बड़े घर में रहते हो
पर खुशियाँ कितनी
चाहत की चादर ये
अब समेट लो भाई
फिर तुम न कहना
आपदा कैसे आई?
प्रकृति से भी मिलो
कभी घर से निकल
बतियाओ बहुत कुछ
बढ़ाओ अपनी अकल
रहना तुम्हें ही अपनी
इस प्यारी वसुधा पर
मेरा क्या आया-गया
स्वयं धरा को खरा कर
जंगल नदियाँ पहाड़
धरा पानी और हवा
बचा ले इन्हें मानव तू
बस यही है इक दवा
तेरी कोशिशों में तेरे
संग-संग मैं भी रहूँगा
तू जो कुछ करेगा मैं
उसकी आवाज बनूँगा
समय हुआ आने का
मेरे मैं तो आऊँगा ही
गीत बसंत के जैसे भी
आकर मैं गाऊँगा ही
तुझे सोचना है अब ये
कैसे बसंत को बुलाना
अपनी मनमानी छोड़
संग मेरे नाचना-गाना।
