बसंत बहार
बसंत बहार
सरोवर के मध्य में गोरी ! कमल सी खिल जाती है
बसंत बहारे नैनों में, सोये यौवन को जगाती है।
चमक-चमक पानी की धारा, केशों से झरती हैं,
धीरे-धीरे बूंद-बूंद से, गले में माला पिरती है,
हिरनी जैसी पलकों में, केश उलझ से जाते हैं,
तेरे कोमल हाथ उन्हें, एक नाग समझ छुड़ाते हैं,
चंदन जैसे तन से लिपट, हवा महक उड़ाती हैं
बसंत बहारे नैनों में, सोये यौवन को जगाती है।
कौआ फेंके तोड़ के कलियाँ, गोरी तेरी राह में,
कोयल गीत सुनाती जाये,आ साजन की बाँह में,
साँझ में तू साजे कितने, कैसे-कैसे सोलह श्रृंगार,
खिले पुष्प की तरह नरम, क्यों करें मन को अंगार,,
चाँदनी रात भी तेरे बिना, अमावस्या हो जाती हैं
बसंत बहारे नैनों में, सोये यौवन को जगाती है।
प्रेम हार पहनाया तुझको, प्रेम जाल नहीं फैलाया,
चाह रखी तुझको पाने की, कहके प्रेम जताया,,
मैनें मुझको कर दिया अर्पण, पावनता जब देखी,
प्रेम-लेख सारा लिखा, जब कलम ने स्याही फेंकी,
गंगा जैसी तेरी सोच से, मेरी सोच मिल जाती हैं
बसंत बहारे नैनों में, सोये यौवन को जगाती है।
