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Ratna Pandey

Drama

5.0  

Ratna Pandey

Drama

बंदिशें

बंदिशें

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छनक रही थी पायल मेरी,

जब गृहप्रवेश कर आई थी,

खनक रहीं थी चूड़ियाँ,

जब हल्दी की छाप लगाई थी।


खुशबू से गजरे की मेरे,

महक रहा था घर आँगन,

बड़ा प्रफुल्लित था,

हिलोरे मार रहा था।


मेरा मन नाच रहा था तन,

मन उमंगो से था भरा,

स्वर्ग से भी सुन्दर,

मेरा घर था लग रहा।


वक़्त ने ली करवट,

बदलने लगा यहाँ सब अब,

जब वक़्त आया,

पीहर जाने का मेरा तब।


स्वर्ग मेरा गुमसुम-सा लगने लगा,

जब जाने का वक़्त निकट,

मेरा आने लगा तभी कानों में,

मेरे फुसफुसाहट-सी आई।


कौन सँभालेगा यहाँ,

अभी कुछ दिन पहले ही तो है आई,

रज़ामंदी भी नहीं ली हम से,

यह तो मनमानी पर है उतर आई।


रुक गये तब पाँव मेरे,

पायल जंज़ीर बन गई,

हाथों की चूड़ियाँ,

खनकने से रुक गईं।


गजरे की खुशबू से,

दम घुटने लगा,

मन दुख के सागर में,

मेरा डूबने लगा,

बंदिशें हैं यहाँ कितनी,

समझ में मुझे आने लगा।


उत्सुक थी बड़ी कि,

पीहर जाऊँगी मैं,

परिवार से अपने गले,

लग पाउँगी मैं।


अनजान थी मैं यहाँ के कायदों से,

बुलाते हैं खुद की बेटी को,

किन्तु बहू पर लगाते हैं बंदिशें।


पच्चीस वर्ष बिताये जिस परिवार में,

छत्र छाया में जिनके पली,

क्या भूल जाऊँ मैं उनकी गली,

क्यों भूल जाऊँ मैं उनकी गली ?


क्यों हैं इतनी बंदिशें कि,

लेनी पड़ रही है अनुमति,

पायल को तुम मेरी,

बेड़ियाँ ना बनाओ।


माना था जिसे स्वर्ग,

उस घर को पिंजरा ना बनाओ,

कैसे निकल पाऊँगी,

छटपटा रही हूँ मैं।


कैसे गले लग पाऊँगी परिवार से,

व्याकुल हो रही हूँ मैं

छोड़ा नहीं है दामन,

मेरे परिवार का मैंने,

ब्याहकर आई हूँ यहाँ,

एक नया बंधन बाँधकर मैं।


डोली में किया है,

परिवार ने बिदा मुझको,

चाहती हूँ कि अंतिम साँस तक,

रिश्ता मैं निभा पाऊँ।


जिस घर में आई हूँ,

उसे भी मैं संवार पाऊँ,

मत लगाओ पाबंदियाँ,

ताकि मैं भी स्वतंत्र रह पाऊँ।


डोली में बिदा होकर आई हूँ मैं,

उसे डोली ही रहने दो,

मेरी अर्थी ना बनाओ कि,

वापस जा ही ना पाऊँ,

कि वापस जा ही ना पाऊँ।


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