बलात्कार
बलात्कार
बलात्कार यानी बल का घिनौना आकर
जहां गिद्ध सी नज़र रखकर
मासूमियत का करते आंचल तार-तार
ओढ़ रखा कई परतों में वेहशिपन का नकाब
जिसकी चपेट में हौंसला रख करते हैं
तन और मन का शोषण बार-बार
टूटती हैं जब सुरक्षा की चूड़ियां
तड़पती हैं विश्वास की कलाईयां
तब
चीखती है देह और सिसकियां मांगती रिहाइयां
इंसानियत की हदों को पार कर
वो जिस्मों से करते हैं खिलवाड़
पूछा है कभी उन लोथड़ों से किसी ने
जो हुए नपुंसक सोच का शिकार?
संस्कारों,धर्म, मानवता और ज़मीर की
सच मानो जब चढ़ने लगे बली
भला बताओ कैसे नारी अपनी अस्मिता बचा ले ?
सुन ए नारी, उठ ए जननी, अब काली का अवतार बन
अपनी शिक्षा और अधिकार का सम्मान कर
शर्मनाक नरसंहार का अब तू ही बंद बाज़ार कर
इस अभिशाप से आज़ाद हो ऐसी चिरजीव तू तलवार बन ...!