दम तोड़ती उम्मीदें
दम तोड़ती उम्मीदें
फँसी रह जाती है
अमीर-गरीब, उच्च-निम्न
हिन्दू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण
के झाड़ो में ही सदैव
मनीषा, निर्भया, रेड्डी, आसिफा
जैसी अनेक मासूम बेटियाँ !
टंगा रह जाता है तो केवल
उनका वजूद चिरकुटों की भाँति
कभी किसी बबूल में तो
कभी किसी कैर में !
दबी रह जाएगी उनकी आह!
उस फाइल में जिस पर बोझ है
शायद किसी के रौब का
या किसी के खौफ का !
अस्तित्व पिघलता रहेगा उनका
कभी सियासत की तपन में
तो कभी रूढ़ियों की अगन में
अब जब उम्मीदें दम तोड़ ही
चुकी है तो क्यों रोकना
उस अश्रु को जो बेबस है
लाचार है लावारिस है
बहते रहना चाहिए उसे
सड़ांध मारती लोकतंत्र की
लहूलुहान लाश पर ?