नदी-नदीश
नदी-नदीश
झरने की रागिनी लगती हैं
पायल की झनकार
मन को सुहाती इसकी ठंडी फुहार
लहराती है हवा नागिनी-सी
सुनकर झरने की झनकार
फिर बनती हैं इस से नदिया
कल कल करती सुर-सरिता
सबके श्रवणो को है सुहाती
बहती है जब सर्पिणी सी
निकलती भूधर से लहराती
सर-सर करती सुर बनाती
फिर गिरती है नदीश में
होता संगम निम्नगा का वारीश में
देखो फिर सागर है इतराता
मिलकर अपनी आपगा से
कभी साहिल से है टकराता
कभी समीर से बातें करता
समीर जो इसे गगन पर ले जाता
फिर से मेघ बन मही पर गिरता
वापस वही सिलसिला चलता रहता।
