मिलती रहूं ...
मिलती रहूं ...
यादों के पुलिंदे मानो
छाती से चिपक गए
और
वक्त की आंधी जिन्हें कभी
उच्छेदित ना कर पाई
अब.....
अब तो लगता है जैसे
सब्र भी कहीं खामोशी संग
एक राह पर चलते-चलते
तम से गहन कर आया है
कि
ताउम्र यूँ ही अमूक बीते पल बनकर
हिज़्र में सोई रहूं
किसी.....किसी करिश्माई रौशनी से
बहुत-बहुत दूर कहीं गहराई में
तुझ संग लिपटी रहूं
बेशक
गुजरा वक्त लौटकर नहीं आएगा
फिर भी
उन एहसासों से यदा-कदा मिलती रहूं
बस मिलती रहूं !