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प्रभात मिश्र

Tragedy

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प्रभात मिश्र

Tragedy

भय

भय

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मृत्यु शैय्या पर, अकेले होने का भय जानते हो ?

छीः! तुम मानव मन की 

गहराई को क्या ही जानते हो ?

वो दिखता स्वप्न में 

जो हो कभी सकता नही

अवचेतन में दबे कुचले

भय को क्या पहचानते हो ?

दिख ही जाते राक्षस 

वो कल्पनाओं के कही

तुम वो शक्ति सोच की

लेकिन कहाँ तक मानते हो ?

मृत्यु शैय्या पर, अकेले 

होने का भय जानते हो ?

समझ सकते हो कहाँ तक

अवसाद को, उन्माद को

पा कर खो देने की विवशता

तुम, अभी क्या जानते हो ?

सत्य ही सब कुछ सुलभ

सबको नही निश्चय मिला 

हाथ से फिसली, विजय का

स्वाद भी क्या जानते हो ?

छी: ! तुम मानव मन की

गहराई को क्या ही जानते हो ?

सत्य तुमने भी चखे है

व्यंग्य, के तीखे जहर 

परंतु, उपेक्षा के, क्या तुम

दंश भी पहचानते हो ?

मृत्यु शैय्या पर, अकेले

होने का भय जानते हो ?

ठीक है होनहार को, मंजूर

जो, होगा वही 

खिसकते हुये आधार पर

फिर क्यों भला भय मानते हो ?

छीः ! तुम मानव मन की

गहराई को क्या ही जानते हो ?

सत्य है, सब ही बड़ा

बनना और दिखना चाहते हैं

दूसरे पर चढ़े को 

पर, कद, कहाँ ही मानते हैं ?

मुझको यूँ नीचे गिरा कर

खुद, को, क्यों ऊँचा जानते हो ?

मृत्यु शैय्या पर, अकेले

होने का भय जानते हो ?

छी ः ! तुम मानव मन की

गहराई को क्या ही जानते हो ?



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